तोड़ के सूरज का टुकड़ा, ओप में ले आऊं मैं! हो जलन हांथों में, तो क्या! कुछ अँधेरा कम तो हो. -मीत

गरीबी को देखा है, उसे महसूस किया है...

कभी तुमने!
गरीबी को देखा है, उसे महसूस किया है...
सीने में दर्द छिपाए,
जब भूख से पेट कुलबुलाये,
निहार शून्य, होंठो को भीच,
एक लम्हा भी जिया है....
गरीबी को देखा है, उसे महसूस किया है...
अनजान मंजिलों की,
बेदर्द महफिलों में,
लिबास के पैबंद को
कभी हाथों से ढका है...
गरीबी को देखा है, उसे महसूस किया है...
राहों में दौलतों की,
क्या तुम कभी चले हो,
सोने के खंजरों को,
कभी जिस्म पे सहा है...
गरीबी को देखा है, उसे महसूस किया है...
कोई खाए कहीं झूठन,
कोई पहने कहीं उतरन,
खरीदने को खुशियाँ,
यहाँ जिस्म भी बिका है...
गरीबी को देखा है, उसे महसूस किया है...
कहीं छत नहीं है सर पे,
कहीं तन उघड़ रहा है,
क्या देख कर इस सब को,
तुम्हारा दिल जला है...
कभी तुमने!
गरीबी को देखा है, उसे महसूस किया है...
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बस यूँ ही ख्याल दिल को दर्द देते रहते हैं...
और दर्द शब्दों में बह जाता है...
फ़िर दर्द हुआ और बह गया...
बस आपकी नज़र कर दिया ...

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आतंक की कहानी, आतंकी की ज़बानी...

उम्र: 21 साल, रोजगार- मजदूरी,आवास- फरिदकोट, तहसील- दिपालपुर, जिला-उकदा, राज्य-पंजाब. पाकिसतान
मैंने अपने जन्म से उपर्युक्त स्थान पर रहता आया हूं। मैंने चौथी कक्षा तक गर्वमेंट प्राइमरी स्कूल में पढ़ाई की. वर्ष 2000 में स्कूल छोड़ने के बाद लाहौर चला गया. मेरा भाई अफजल लाहौर के गली नंबर 54, मकान संख्या 12, मोहल्ला तोहित अबाद, यादगार मिनार के पास रहता है। मैं 2005 तक कई जगहों पर मजदूरी की। इस दौरान में अपने पुश्तैनी मकान भी जाता रहा. वर्ष 2005 में मेरा, मेरे पिता के साथ झगड़ा हो गया. इसलिए, मैं घर छोड़कर लाहौर के अली हजवेरी दरबार चला गया. मुझे बताया गया था कि यह, वह स्थान है, जहां घर से भागे लड़कों को पनाह मिलती है और यहां से लड़कों को दूसरे स्थानों पर रोजगार के लिए भेजा जाता है. एक दिन जब मैं वहां था, एक शफीक नाम का लड़का आया और वह मुझे अपने साथ ले गया. वह कैटरिंग का व्यवसाय करता था. शफीक झेलम का रहने वाला था. मैं उसके साथ दिहाड़ी पर काम करने लगा. मुझे रोज के 120 रुपये मिला करते थे. कुछ दिनों बाद मेरी दिहाड़ी 200 रुपये हो गई. मैंने शफीक के साथ 2007 तक काम किया. शफीक के साथ काम करते हुये ही मैं मुजफर लाल खान (उम्र-22 वर्ष, आवास/गांव- रोमिया, तहसील और जिला-अटक, राज्य-सरहद, पाकिस्तान) के संपर्क में आया. हमने लूटपाट/डकैती करने का मन बनाया, क्योंकि हम अपनी आमदनी से संतुष्ट नहीं थे. ऐसा सोच कर हमने नौकरी छोड़ दी. इसके बाद हम रावलपिंडी चले गये. वहां हमने बंगश कॉलोनी में एक फ्लैट किराये पर लिया और रहना शुरू कर दिए. अफजल ने डाका डालने के लिए एक घर को चुन लिया, जहां उसे ज्यादा माल मिलने की उम्मीद थी. उसने डाका डालने से पहले उस घर के बारे में अच्छी तरह से जानकारी ले ली और नक्शा भी बना लिया. इसके लिए हमें बंदूकों की आवश्यकता थी. अफजल ने मुझसे कहा कि वह बंदूक की व्यवस्था अपने गांव से कर सकता है, लेकिन इसमें बहुत खतरा है, क्योंकि वहां हमेशा चेकिंग होती रहती है.पहली मुलाकातबकरीद के दिन रावलपिंडी में जब हम हथियार ढूंढ रहे थे, राजा बाजार में हमें कुछ लश्कर-ए-तोयबा के स्टॉल दिखे. हमने सोचा कि आज हम हथियार पा भी लें तो उसे चला नहीं पाएंगें. इसलिए हथियार प्रशिक्षण के लिए लश्कर-ए-तोयबा में शामिल होने का निर्णय लिया. पूछताछ कर हम लश्कर के ऑफिस में पहुंच गए. वहां मौजूद एक व्यक्ति से हमने शामिल होने की मंशा जाहिर की. उसने हमसे कुछ पूछताछ की, हमारा नाम और पता दर्ज किया और अगले दिन से आने को कहा.अगले दिन हम लश्कर के ऑफिस पहुंचे और उसी व्यक्ति से मिले. उसके साथ एक और व्यक्ति वहां मौजूद था, उसने हमें 200 रुपये और कुछ कागजात दिये. उसके बाद उसने हमें एक स्थान मरकस तय्यबा, मुरिदके का पता दिया और वहां जाने को कहा. उसी स्थान पर लश्कर का ट्रेनिंग कैंप था. वहां हम बस से गए और कैंप के गेट पर कागजात दिखाये और अंदर दाखिल होने के बाद हमसे दो फॉर्म भरवाए गए. तब हमें असली कैंप एरिया में दाखिल होने की अनुमति मिली.
ट्रेनिंग कैंप
उक्त स्थान पर शुरू में हमें 21 दिनों का ट्रेनिंग दी गयी, जिसका नाम था, दौरासूफा। अगले दिन से हमारी ट्रेनिंग शुरू हो गयी। हमारा रोज का प्रोग्राम कुछ इस प्रकार था.
4.15- जागना और फिर नमाज़
8.00- नाश्ता
8.30-10.00-मुती सईद द्वारा कुरान की पढ़ाई
10.00-12.00-आराम
12.00-1.00-भोजन
1.00-2.00-नमाज
2.00-4.00-आराम
4.00-6.00-पीटी और गेम टीचर-फादूला
6.00-8.00-नमाज और अन्य काम
8.00-9.00- भोजन
उपर की ट्रेनिंग पूरी कर लेने के बाद हमें दूसरे ट्रेनिंग केम्प दौराअमा के लिए चुना गया। यह भी 21 दिनों का ट्रेनिंग कैंप था. उसके बाद हमें एक स्थान, मंसेरा गांव ले जाया गया. वहां 21 दिनों तक हमें सभी हथियारों की ट्रेनिंग दी गयी. वहां रोज का हमारा प्रोग्राम कुछ ऐसा था.
४-15-5.00- जागना और फिर नमाज
5-00-6.00- पीटी इंसट्रक्टर- अबु अनस
८-0- नाश्ता
8-30-11.30-हथियार चलाने की ट्रेनिंग, अब्दुल रहमान के द्वारा एके 47, ग्रीन-एसकेएस, यूजी गन, पिस्टल, रिवॉल्वर.
११-30-12.00- आराम
12.00-1.00- भोजन
१-00-2.00- नमाज
2.00-4.00- आराम
4.00-6.00- पीटी
6.00-8.00- नमाज और अन्य काम
8।00-9.00- भोजन
सीएसटी के बाहर अजमल
ये ट्रेनिंग पूरी कर लेने के बाद हमसे दूसरी ट्रेनिंग करने की बात कही गयी, लेकिन उससे पहले दो महिने की खिदमत करने को कहा गया। हम उस दो महिने की खिदमत को तैयार हो गये.
अपने घर वापस
दो महिने बाद मुझे माता-पिता से मिलने की अनुमति दी गयी। एक महिने मैं अपने घर रहा. उसके बाद आगे की ट्रेनिंग के लिए मुजफराबाद के सांइवैनाला स्थित लश्कर के कैंप में गया. वहां मेरे दो फोटो लेकर फॉर्म भरा गया. उसके बाद हमें छेलाबंदी पहाड़ी में दौराखास का ट्रेनिंग दी गयी. यह ट्रेनिंग 3 महिने की थी. इसमें पीटी, हथियारों का रख-रखाव और उनका इस्तेमाल, हैंड ग्रेनेड, रॉकेट लांचर और मोर्टार की ट्रेनिंग दी. रोज का प्रोग्राम ऐसा था.
4.15-5.00- जागना और फिर नमाज
5.00-6.00- पीटी इंस्ट्रक्टर अबु माविया
8.00- नाश्ता
8।30-11.30- हैंड ग्रेनेड, रॉकेट लांचर, मोर्टार, ग्रीन, एसकेएस, यूजी गन, पिस्टल, रिवॉल्वर का प्रशिक्षण, अबू माविया के द्वारा.
11.30.-12.00 आराम
12.00-1.00 लंच ब्रेक
1.00-2.00 नमाज
2.00 - 4.00 हथियार चलाने की ट्रेनिंग और भारतीय सुरक्षा एजेंसियों के बारे में जानकारी.
4.00-6.00 पीटी
6.00-8.00 नमाज और अन्य कार्य
8.00-9.00 भोजन
सोलह का चयन
ट्रेनिंग के लिए 32 लोग वहों मौजूद थे. इन 32 में से 16 लोग जकी-उर-रहमान उर्फ चाचा के द्वारा एक गुप्त ऑपरेशन के लिए चयन किये गये. इन 16 ट्रेनियों में 3 लड़के कैंप से भाग गये. बचे हुए 13 लड़कों को काफा नामक व्यक्ति के साथ फिर से मूरीदके कैंप भेज दिया गया। मूरीदके में हमें तैराकी की ट्रेनिंग दी गयी और मछुआरे समुद्र में कैसे काम करते हैं, इसकी ट्रेनिंग दी गयी. हमने समुद्र में कई प्रायोगिक यात्राएं की. इस दौरान भारतीय सुरक्षा एजेंसियों के काम करने की जानकारी हमें दी जा रही थी. साथ ही हमें भारत में मुसलिमों के खिलाफ दमन की विडियो क्लिपिंग भी दिखाई जा रही थी. इस ट्रेनिंग के समाप्त होने पर हमें अपने घर जाने की अनुमति दी गयी. मैं सात दिनों तक अपने परिवार के साथ रहा. इसके बाद में लश्कर-ए-तोयबा के मुजफराबाद कैंप चला आया. हम वहां 13 लोग थे. फिर वहां से हमें काफा मुरीदके कैंप ले गया.
समुद्री अनुभव
जैसा कि मैंने पहले कैंप के बारे में बताया फिर से वहां तैराकी की ट्रेनिंग दी जाने लगी। यह ट्रेनिंग 32 दिनों तक चली. यहां हमें भारतीय खूफिया एजेंसी के बारे में भी बताया गया. यहां हमें इस बात की भी ट्रेनिंग मिली की कैसे सुरक्षाकर्मियों से बचकर भगा जाये. हमें इस बात की भी ताकीद की गयी कि भारत पहुंच कर कोई भी पाकिस्तान फोन न करे. ट्रेनिंग में मौजूद 16 सदस्यों का नाम इस प्रकार है.
मोहम्मद अजमल उर्फ अबु मुजाहिद,
इसमाइल उर्फ अबु उमर,
अबु अली,
अबु अख्शा,
अबु उमेर,
अबु शोएब,
अब्दुल रहमान (बड़ा),
अब्दुल रहमान (छोटा),
अदुल्ला,
अबु उमर
ट्रेनिंग समाप्त होने के बाद जकि-उर-रहमान उर्फ चाचा ने हम में से 10 लोगों का चयन किया और उसे दो-दो के हिस्सों में बांट दिया, जो कि पांच टीम बनी। वह 15 सितंबर का दिन था.
वीटीएस टीम
मेरी टीम में मेरे अलावा इस्माइल था। हमारा कोड वीटीएस टीम था. हमें इंटरनेट पर गूगल अर्थ के जरिये नक्शा दिखाया गया। इसी साइट के द्वारा हमें मुंबई के आजाद मैदान की जानकारी दी गयी. हमें वीटी रेलेवे स्टेशन का वीडियो दिखाया गया. जिसमें यात्रियों की भीडभाड दिखायी गयी. हमें यह आदेश दिया गया कि भीडभाड के समय सुबह के 7-11 या शाम के 7-11 बजे फायरिंग करनी है. इसके बाद कुछ लोगों को बंधक बनाना है और नजदीक की किसी बिल्डिंग की छत पर ले जाना है. छत पर पहुंच कर चाचा से कांटेक्ट करना है. इसके बाद चाचा इलेक्ट्रानिक मीडिया के संपर्क नंबर देते और हमें मीडिया के लोगों से संपर्क करना था. चाचा के आदेश के बाद हमें बंधकों की रिहाई के लिए मांगे रखनी था. यह हमारे ट्रेनरों के द्वारा सामान्य शिक्षा दी गयी थी. इसके लिए 27 सितंबर 2008 का दिन तय किया गया था, लेकिन इसके बाद किसी कारणवश यह ऑपरेशन टाल दिया गया. हम करांची में रुके और फिर से समुद्र में बोट चलाने की प्रेिक्टस की. हम वहां 23 नवंबर तक रुके वहां की टीमें इस प्रकार थीं.
दूसरी टीम: अबु अख्शा, अबु उमर
तीसरी टीम: बड़ा अब्दुल रहमान, अबु अली
चौथी टीम: छोटा अब्दुल रहमान, अदुल्ला
पांचवी टीम: शोएब, अबु उमेर
23 नवंबर को सभी टीम अजीजाबाद से चली. हमारे साथ जकि-उर-रहमान उर्फ चाचा और काफा भी थे. हम समुद्र तट के नजदीक पहुंचे. तब 4.15 हुए थे, वहÈ हमने लंच किया. 22-25 नॉटिकल्स माइल्स आगे बढ़ने के बाद हम एक बड़े से जहाज जिसका नाम अल-हुसैनी था, पर सवार हुये. जहाज पर सवार होते ही हम में से हरेक को 8 ग्रेनेड, एक-एक एके-47 राइफल, 200 गोलियों, दो मैगजीन और एक-एक सेल फोन दिया गया। इसके बाद हम भारत की सीमा की ओर चल पड़े.
मुंबई पहुंचने पर
तीन दिनों की यात्रा के बाद मुंबई के नजदीकी समुद्री इलाके में पहुंचे तट पर पहुंचने से पहले ही इसमाइल और अदुल्ला ने भारतीय जहाज के चालक की हत्या कर दी। इसके बाद हम डिंघी पर सवार होकर बुडवार पार्क के समीप पहुंचे. मैं इसमाइल के साथ टैक्सी से वीटी रेलवे स्टेशन पहुंचा, रेलवे स्टेशन पहुंचते ही हम टॉयलेट गये और वहीँ हमने अपने हथियारों को लोड किया और बाहर निकलते ही अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी. अचानक से एक पुलिस ऑफिसर ने हम पर फायरिंग शुरू कर दी. जवाब में हमने उस पर ग्रेनेड फैंक दिया.इसके बाद हम फायरिंग करते हुये रेलवे स्टेशन के अंदर पहुंच गये. फिर हम स्टेशन से बाहर आ गये और एक बिल्डिंग तलाशने लगे, लेकिन हमें मनमाफिक बिल्डिंग नहीं मिल पायी. इसके बाद हम एक गली में घुस गये. वहां हम एक बिल्डिंग में चले गये. 3-4 मंजिल चढ़ने पर हमने पाया कि यह तो अस्पताल है. इसलिए हम फिर से नीचे उतरने लगे. इसी बीच एक पुलिकर्मी ने हमपर फायरिंग शुरू कर दी और हमने उस पर भी ग्रेनेड फेंक दिया. जैसे ही हम अस्पताल की चारदीवारी से बाहर निकले, तो हमें एक पुलिस की गाड़ी दिखायी दी। इसलिए हम एक झाड़ी के पीछे छिप गये.
शूट आउट ऑन रोड
एक गाड़ी हमारे आगे आकर रुकी. एक पुलिस ऑफिसर नीचे उतरकर हमपर फायरिंग करने लगा. मेरे हाथ में गोली लगी और मेरी राइफल नीचे गिर गयी. जैसे ही मैं नीचे झुका की एक दूसरी गोली फिर से मेरे उसी हाथ में लगी. मैं घायल हो गया. लेकिन इसमाइल उस अफसर पर फायरिंग करता रहा. वे लोग भी घायल हुए और फायरिंग बंद हो गयी. हमें उस गाड़ी तक पहुंचने में कुछ समय चाहिए था. उस गाड़ी में हमें तीन लाशें मिली, जिन्हें इसमाइल ने गाड़ी से नीचे फेंक दिया. फिर हम उस गाड़ी में सवार हो गये. कुछ पुलिस वालों ने हमें रोकने का प्रयास किया और इसमाइल ने उन पर भी फायरिंग की. कुछ आगे जाने पर एक बड़े से मैदान के समीप गाड़ी पंक्चर हो गयी. इसमाइल गाड़ी से नीचे उतरा और एक दूसरी कार, जिसे एक महिला चला रही थी को गन प्वाइंट पर रोक लिया. उसके बाद इसमाइल मुझे उस कार तक ले गया. क्योंकि मैं घायल था. वह खुद कार चलाने लगा. कुछ देर बाद समुद्र के किनारे हमारी गाड़ी रोक दी गयी. इसमाइल लोगों पर गोलियां बरसाने लगा. कुछ पुलिस वाले घायल हो गये और वो भी हमपर फायरिंग करने लगे. इसी दौरान इसमाइल भी घायल हो गया. इसके बाद पुलिस हमें किसी अस्पताल में ले गयी. अस्पताल में मुझे मालुम हुआ कि इसमाइल मर चुका है और मैं बच गया हूं.

(मेरा यह बयान हिंदी में पढ़कर मुझे समझा दिया गया है और यह पूरी तरह सही है। :मोहम्मद अजमल अमीर ईमान अलियास अबू मुजाहिद )

**यह मुंबई आतंकी घटना में पकड़े गए मात्र एक जिंदा आतंकी का बयाँ है जिसे लफ्ज़-ब-लफ्ज़ आपके सामने दिया है...

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हमें अभी बहुत सी ज़ंग जीतनी हैं...

पूरे देश की निगाहें थी मुंबई में हो रही आतंकी घटना पर... कितने ही मारे जा चुके थे, कितने ही अस्पताल में मौत से लड़ रहे थे...कितने ही उन दहशतगर्दों से लोहा लेते हुए मौत के मुह में जा चुके थे... और कितने ही लड़ रहे थे... २९ नवम्बर २००८... सुबह ४ बजे ज़ंग लगभग अपनी चरम सीमा पर थी पिछले २ दिन से मैं लगातार टीवी से चिपका रहा था, और देश के जाबाजों को घात लगाये बैठे देख रहा था... कभी कभी छिटपुट गोलीबारी होती तो लगता अब शायद जीत मिलेगी...पर नहीं...
टीवी देखकर थक गया था, मोर्निंग वाल्क का टाइम भी हो चला था सो निकल पड़ा... मेरे घर से रोड क्रॉस करते ही, चांदनी चौक थाना है... जो की जनता के लिए नया बना है... मैं रोड क्रॉस कर उसके सामने पहुँचा ही था... की एक लगभग ५ फीट का हवालदार, मोटा पेट, बाल आधे सफ़ेद, आधे काले...
कुल मिलाकर बहुत ही भोंडा सा लग रहा था वो, मुहं में पान था और शरीर पर पेट के आलावा कुछ नजर नहीं आ रहा था, ऐसे लगता था बस अभी फट पड़ेगा... ठण्ड भी कुछ ज्यादा ही थी... वो पुलिस वाला उसके रिक्शे से उतरा और सीधा थाने में जाने लगा...
उसे बिना पैसे दिए जाते देख रिक्शा वाला, जो की एक ६ फीट का हट्टा-कट्टा जवान था, शारीरिक बनावट से कोई फौजी की तरह लग रहा था... उससे बोला साब किराया तो देते जाइये...
पुलिसवाला थाने के गेट पर खड़े अपने दूसरे साथी से बोला की अबे इसे कुछ समझा ये हमसे पैसे मांगेगा... ये शब्द सुनते ही मेरा जैसे खून सा खोल गया... उस रिक्शे वाले को इतनी ठण्ड में भी माथे से पसीने की बुँदे पोंछते देख इस बात का अंदाजा हो रहा था की वो मोटा उसे काफी दूर से लेकर आया होगा... मैंने उस पुलिसवाले को आवाज देते हुए कहा माफ़ कीजियेगा! जब आप उसके रिक्शे में बैठ कर आए हैं तो फ़िर उसका किराया दिए बिना क्यों जा रहे हैं... वो पुलिसवाला बोला तुझे ज्यादा दर्द हो रहा है तो तू ही देदे इसका किराया...
मैं उसकी यह बात सुनकर उस पुलिसवाले से उलझना चाहता था, पर उस रिक्शे वाले ने मुझे रोका, और छोडिये ना साहब! खाने दीजिये इसे हराम की कह कर अपना रिक्शा लेकर हलके-हलके कोहरे में कहीं खो गया... वो दोनों पुलिसवाले जोर से हँसे और फ़िर अंदर चले गए... मैं लगभग ५ मिनट वहां रुका और मूड ख़राब हो जाने की वजह से वापस घर की की तरफ़ चल दिया...
घर पहुँचा तो पता चला की मुंबई की ज़ंग जीती जा चुकी थी... सारे आतंकवादी मारे जा चुके थे...मैंने शीशे में अपना चेहरा देखा, मेरे चेहरे पर संतोष नहीं था... मन में सोचा की उस संतोष को पाने के लिए हमें अभी बहुत सी ज़ंग जीतनी हैं...

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क्योंकि वो प्यार के सागर हैं...

हमे जब भी कोई दुःख या कोई परेशानी होती है, तो हम तुंरत इश्वर, अल्लाह, भगवान जिस नाम से भी उन्हें बुलाते हैं, से प्रार्थना करने लगते हैं कि- भगवान मेरा ये काम बनवा दो, मेरे दुःख दूर कर दो, अगर पूरा हो गया तो भगवान को भूल जाते हैं... अगर नहीं पूरा हुआ तो भगवान को बुरा, भला और निर्दयी कह कर कोसने लगते हैं...
क्या कभी सोचा है कि भगवान पे क्या गुजरती होगी?
क्या कभी सोचा है कि एक दिन भी अगर भगवान अपने काम से छुट्टी लेकर चले जाएँ या अपना काम समय से ना करें, तो क्या होगा? शायद हम अंदाजा भी नहीं लगा सकते... अरे सोच कर देखिये कि अगर सूरज, हवा, बारिश समय पर अपना काम ना करे तो क्या होगा?
कल रात मैंने एक हॉलीवुड फ़िल्म देखी जिसका नाम था ब्रूस अलमाईटी। मेरे दिल में इश्वर के प्रति जितनी भी श्रद्धा, प्यार और विश्वास था वो और भी ज्यादा हो गया...
फ़िल्म में एक लड़का होता है जो एक न्यूज़ चेनल में रिपोर्टर होता है, उसके पास पैसा, गाड़ी, घर, प्यार सब कुछ होता है, लेकिन वो उस से कहीं और ज्यादा कि चाहत रखता है। और ज्यादा कि चाह में वो अपनी नोकरी खो बैठता है। उसके बाद वही जो कि शायद दुनिया का हर इंसान करता है। वो भगवान को कोसने लगता है कि तुम बुरे हो, तुम मेरे बारे में नहीं सोचते, तुम्हें मुझ पर तरस नहीं आया... एक बार अपनी जगह मुझे रख कर देखो सारी दुनिया को खुश कर दूंगा...
वो हमेशा भगवान को कोसता रहता था, आखिर भगवान् को भी दुःख होता होगा... वो उसके पेजर पे एक नम्बर भेजते हैं... बार-बार लगातार, वो अपना पेजर फैंक देता है कि कोई उसे परेशां ना करे लेकिन टूटने के बाद भी उसमे नम्बर आता रहता है। आखिर वो उस नम्बर पे काल करता है। दूसरी तरफ़ से एक आवाज उसे कहती है कि मेरे पास तुम्हारे लिए एक जॉब है, पता लिखवाती है और फ़ोन कट...
वो फ़ोन पर बताये गए पते पर पहुँचता है गिरता पड़ता। बिल्डिंग में उसका कौन इंतज़ार कर रहा होता है, शायद आप समझ गए होंगे? जी हाँ वहां उसका इंतज़ार भगवान् कर रहे होते हैं, वो उसे उसकी इच्छाओं का अकाउंट दिखाते हैं, जिसमे उसकी रीसेंट इच्छा होती है की अपनी जगह मुझे रख कर देखो... पहले तो वो सब मजाक समझता है लेकिन वहां उसके साथ ऐसे इंसिडेंट होते हैं की उससे मानना पड़ता है की भगवान उसके सामने हैं। आखिर भगवान उसे कहते हैं मेरे पास तुम्हारे लिए एक जॉब है, मैं कुछ दिनों तक छुट्टी पे जा रहा हूँ और इस बीच मेरा कम तुम करोगे। मैं अपनी सारी शक्तियां तुम्हें दे रहा हूँ। तुम लोगो की मदद करना और सबको खुश रखना...
लेकिन इंसान तो इंसान ठहरा, वो सारी शक्तियां केवल अपने लिए ही इस्तेमाल करता है, वो फेमस हो जाता है जो जॉब वो चाहता था वो पा लेता है, लेकिन इस सब के बीच वो कई लोगो को विपदा में डाल देता है और अपने प्यार को भी खो बैठता है...
भगवान से पूरी दुनिया में हरपल कितने ही लोग ना जाने क्या-क्या मांगते हैं उसे वो सब सुनायी देती रहती है... आखिर वो उस समय भगवान ही तो था। वो उन आवाजो से परेशां हो जाता है... और सभी कामनाओं को पूरा होने का आशीर्वाद दे देता है...
और फ़िर वही होता है जो की बिना भगवान के होगा। सब कुछ उलटपुलट हो जाता है। वो तो भगवान ने उसे काम करने के लिए सिर्फ़ एक छोटा सा शहर दिया था, जिसमे की वो रहता था। इतने में ही उसका बुरा हाल हो जाता है... पूरे शहर की विशेज का उसके कानो में गूंजना, प्यार का खो जाना... आखिर उसके किए कामो से शहर पागल सा हो जाता है... जब उसके बस में कुछ नहीं रहता तो फ़िर वही...आखिर में उसे इश्वर की ही याद आती है... और इश्वर जिन्हें हम निर्दयी, बुरा और ना जाने क्या-क्या कह कर बुलाते हैं वो आ जाते हैं अपने बच्चे को सँभालने और सब कुछ ठीक कर देते हैं...
मैं आपके सामने फ़िल्म को इतनी अच्छी तरह से पेश नहीं कर पाया जितनी अच्छी तरह से उसे उस निर्माता ने पेश किया है... बस मैंने तो इसे आपसे बांटना चाहा है... लेकिन आप को जब भी मौका मिले फ़िल्म को देखियेगा जरुर...
मुझे फ़िल्म देखकर ये एहसास हुआ की हम कितने बुरे हैं। यूँ तो मैं भी इश्वर से बहुत प्यार करता हूँ, उनसे जो भी माँगा वो उन्होंने दिया, जब भी पुकारा तब-तब वो मेरे साथ रहे और हमेशा रहते हैं... लेकिन मैं भी जीवन में कई बार उनसे लड़ा हूँ, मैंने भी उन्हें कई बार भला बुरा कहा है। लेकिन उन्होंने मुझे प्यार के अलावा कुछ नहीं दिया... क्योंकि वो प्यार के सागर हैं...
हमें बस ये याद रखना चाहिए की वो हमेशा हमारे साथ है...
और अगर आपको उनसे कुछ कहना होतो- ऊपर देखो और कह दो वो जरुर सुनेंगे...
god blees the whole world....
_________________________
गुरु स्वाति द्वारा सिखाया गया हाइकु
हाथ उठाये।

दया का सागर।
स्नेह बरसाए।
_________________________
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तेरे साथ गुज़रे लम्हे, पल-पल पिघल रहे हैं...

तेरी चिता की आग में,
बरबस ही जल रहे हैं.
तेरे साथ गुज़रे लम्हे,
पल-पल पिघल रहे हैं।
आई है रुत ये कैसी?
ये कैसा गुल खिला है।
खुशियों का मेरा मौसम,
आज खाक में मिला है।
लगता है, ढल गई है,
हर शाम ज़िन्दगी की।
और उम्र से ही पहले,
अब हम भी ढल रहे हैं।
तेरे साथ गुज़रे लम्हे,
पल-पल पिघल रहे हैं।


भूलने की तो कोशिश बहुत की पर कमबख्त दिल से निकलता ही नहीं...दिन तो जैसे-तैसे निकल ही जाता है, पर रात होते ही फिर से ख्यालों में आने लगता है...इतना क्यों रुलाता है तू...

"चले गए तुम तो जहाँ से,
हुयी ज़िन्दगी पराई...
तुम्हें मिल गया ठिकाना,
हमें मौत भी ना आयी..."
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इक आह करी होगी,
हमने ना सुनी होगी।
जाते-जाते तुमने,
आवाज तो दी होगी।
हर वक्त यही है गम,
उस वक्त कहाँ थे हम।
कहाँ तुम चले गए...
हर चीज पे अश्कों से,
लिखा है तुम्हारा नाम।
ये रस्ते, घर, गलियां,
तुम्हें कर ना सके सलाम...
हाय! दिल में रह गयी बात,
जल्दी से छुडा कर हाथ,
कहाँ तुम चले गए...
अब यादों के कांटे,
इस दिल में चुभते हैं,
ना दर्द ठहरता है,
ना आंसू रुकते हैं...
तुम्हें ढूंढ रहा है प्यार...
हम कैसे करें इकरार?
के हाँ तुम चले गए...
चिट्ठी ना कोई संदेस,
जाने वो कौन सा देस,
जहाँ तुम चले गए...
इस दिल पे लगा के ठेस...
कहाँ तुम चले गए...
बस यही चंद गीत छोड़ गए हो गुनगुनाने के लिए...
(उपरोक्त गीत उड़न खटोला और दुश्मन फ़िल्म के हैं,
इन्हें आब में सुनता रहता हूँ)
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ज़िन्दगी भर का दर्द

पिछले हफ्ते मेरा बचपन का साथी, मेरा भाई मुझे छोड़ कर चला गया...१३-अक्टूबर को उसकी एक प्लेन (मिग-70) में आक्सीजन चार्ज करते समय ब्लास्ट हो जाने से मौत हो गयी...मेरा भाई अरुण, वो मुझसे केवल नो महीने बड़ा था. सारा बचपन और लड़कपन एक साथ मेरठ में गुजारा. कभी सोचा भी नहीं था की वो इस तरह मुझे छोड़ के चला जायेगा..हमेशा खुश रहता था, कभी उस उदास नहीं देखा. हम दोनों पिछले आठ सालो से दूर हुए थे, लेकिन वो हमेशा मुझसे फोन पर बा करता रहता था... उसका आखिरी फोन मेरे जन्मदिन के दिन अक्टूबर को आया था... हमने खूब हंस-हंस कर बातें की.. जन्मदिन की शुभ कामनाएं देने के बाद बोला की कोई गर्लफ्रेंड बने की नहीं मैंने कहा नहीं तो बोला आस-पास कोई लड़की है तो उसी को पर्पोस कर दे. मैंने कहा पिटवाएगा क्या... और देर तक हँसता रहा. आखिरी शब्द उसने कहे थे की अपना ध्यान रखियो और मैंने भी उसे यही कहा था. उसकी बातों से जरा भी ऐसा नहीं लगा की वो कुछ दिनों में ही मुझे छोड़ जायेगा...वो तो नेवी में जाना ही नहीं चाहता था. ट्रेनिंग के समय ही उसने ख़त में लिखा था की यहाँ मेरा मन नहीं लगता बहुत मारते हैं साले! पर मैंने उसे कहा था की अभी सह ले बाद में आराम रहेगा... अब वो हमेशा के लिए आराम करने चला गया.पिछले कुछ दिनों से वो अपनी माँ से कहने लगा था की माँ में तो तिरंगे में आऊंगा... और तिरंगे में ही आया.ऐसा कभी सुना था, या फिल्मो में और सीरियलों में देखा था, लेकिन अपने पर ही गुजर गया...जिस वक्त में उसके ताबूत को एअरपोर्ट से लेकर मेरठ जा रहा था तो ऐसा लग रहा था की अभी उठ के बोलेगा की मुझे इस लकडी के बक्से में क्यों बंद किया है मेरा दम घुट रहा है...उसे दर्द बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं था...जरा सी ऊँगली कट जाने पर जोर से चीखता था...
कहीं भी जब इस तरह का माहौल होता है तो लोग एक-दुसरे को िलासा देते हैं, लेकिन वहां ऐसा मंजर था की सभी लोग तड़प-तड़प कर रो रहे थे... कोई किसी को सँभालने लायक नहीं था...उसका शव मेरे पैरो में पढ़ा था उसके खूबसूरत चेहरे पर ब्लास्ट के छर्रों ने अपनी करनी लिख दी थी...गोवा से आया उसका एक दोस्त अलग फूट-फूट कर रो रहा था...ऐसा लग रहा था जैसे हाहाकार मचा है... अपनी ज़िन्दगी में कभी इस तरह का मातम नहीं देखा... दिल इतनी बुरी तरह तड़प रहा था की उसे शब्दों में नहीं बया कर सकता...अभी तक दिल मानने को तैयार नहीं है की वो चल गया है... उसकी शक्ल देखने के बाद भी ऐसा लग रहा था की ये कोई और है... और मेरा भाई अभी आयेगा और कहेगा की क्यों रो रहा है बे...
वो रोजाना मिग-७० विमान को चेक करता था, की कोई खराबी तो नहीं है, चेक करने के बाद जब वो पेपर साइन कर देता था तब ही पायलट उस उड़ने के लिए उसमे बैठ सकता था... साथ ही वो पाइलेट के लिए डेली आक्सीजन भी रिचार्ज करता था...१३ अक्टूबर की सुबह भी वो आक्सीजन रिचार्ज कर रहा था ना जाने कैसे क्य्लेंदर का गेज ब्लास्ट हो गया, क्योंकि यह कम बहुत नजदीक से और ध्यान से किया जाता है तो वो भी बहुत नजदीक था। ब्लास्ट से उसके चेहरे और सीने (दायें ओर) में एल्यूमिनियम के टुकड़े धंस गए जिससे एक नस जो हार्ट को जाती है बिलकुल कट गयी थी, और ब्लड रुक नहीं रहा था जिससे अस्पताल पहुँचते ही उसकी मौत हो गयी...ऐसा हमें बताया गया है....क्या करूँ कुछ समझ नहीं रहा है... दिल पर बिलकुल काबू नहीं है... िल ये मानने को तैयार नहीं है की वो जा चूका है...अगर वो किसी लडाई में शहीद होता तो शायद मुझे भी ख़ुशी होती, लेकिन इतनी सस्ती मौत... इसे कैसे बर्दाश्त करुँ समझ नहीं रहा...ज़िन्दगी भर का दर्द देकर चला गया है इस दिल पे... मरते दम तक तड़पने के लिए छोड़ गया...
दिल तो चाहता है की आपसे उसकी सारी बातें बाँट लूं... पर...


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चंद कतरे आंसुओं के

मेरी एक मौसेरी बहन है, मैं उसे बहुत प्यार करता हूँ. लेकिन वो भी मुझे उतना ही प्यार करती है, ये मुझे कुछ ही दिन पहले पता चला।
जब वो छोटी सी (स्कूल जाने लगी थी ) थी तभी से मैं जब भी उससे मिलने जाता था, तो अपने प्यार के रूप में कुछ कागज के नोट उसे दे आता था, हालाँकि तब मुझे दिक्कत होती थी, लेकिन उसके लिए मैं मैनेज कर लेता था। फिर मैंने कमाना शुरू किया। इधर कमाना शुरू किया और उधर उसको देना भी कम होता गया...
खैर! अभी कुछ दिन पहले मेरी मौसी ने घर पर काम करने के लिए एक महरी लगाई। घर को साफ करते-करते उस महरी ने काफी कुछ साफ कर दिया। पर जब मौसी को पता चला तो काफी देर हो चुकी थी, वो काफी दुखी हुईं।
लेकिन मेरी बहन वो कुछ ज्यादा ही दुखी थी और रो भी रही थी, जब उससे रोने का कारण पुछा तो पता चला की मैंने उसे अबतक जितने भी पैसे दिए थे, उन सब पर उसने मेरा नाम लिख कर उन्हें सहेज कर रखा हुआ था...
यानि वो एक-एक नोट उसने बहुत संभाल कर रखा था, जिन्हें मैं उसे दे आता था
वो महरी ना जाने कब उन्हें चुरा कर ले गई।
जब मुझे सारी बात पता चली तो मुझे बहुत दुःख हुआ, और अपनी बहन पर प्यार भी आया। मैंने तुंरत उसे फोन किया और कहा की तेरे कितने पैसे चोरी हो गए। तो वो बड़ी सफाई से सच छिपा गयी, क्योंकि वो जानती है की उतना ही दुःख मुझे भी होता, जितना की वो महसूस कर रही थी...
मैंने उसे कहा की मैं उसे और पैसे दे दूंगा...
वो बोली ठीक है... उसकी इस बात से उसने सोचा होगा की भैया को तसल्ली हो गयी, और मैं इधर सोच रहा था की शायद उसे तसल्ली हो जाये...
लेकिन उन पैसो को खोने का गम उसके साथ साथ मेरे भी मन में आ गया था...आखिर वो पैसे नहीं थे, मेरी बहन ने तो उन्हें मेरी निशानी बना कर रखा था...
उस महरी के लिए वो बेशक चाँद कागज के रूपये थे, लेकिन उन रुपयों की अहमियत मेरी बहन के दिल में कहीं ज्यादा थी...
अपनी बहन के इस अनकहे प्रेम को क्या कहूं समझ नहीं आता, बस उसके बारे में सोच कर चंद कतरे आंसुओं के निकल आते हैं और आँखों के किनारे गिले हो जाते हैं...
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ए ज़िन्दगी तू यूँ ना गुज़र अभी...











ए ज़िन्दगी तू यूँ ना गुज़र अभी...
तय करना है लंबा सफर अभी...
साया भी छोड़ जाता है, जब रात आती है,
रात ना कर, रहने दे सहर अभी...
चले जा रहे हैं हम, तन्हा ही मंजिल की तरफ,
धुंधला जाती है मंजिल, तू अँधेरा ना कर अभी...
ए ज़िन्दगी तू यूँ ना गुज़र अभी...
रोशन है तू तो, चले जाता हूँ मैं,
राह में कितनो से ही आगे निकल जाता हूँ मैं...
ठोकर खा जाऊंगा, गर दिखेगा नहीं कुछ,
रहम ना कर, पर कर ले फ़िक्र अभी...
ए ज़िन्दगी तू यूँ ना गुज़र अभी...
धड़कनों की धक-धक में,
हो रही है मौत की पदचाप...
पर सुनने नहीं देता है इसे,
तेरा ही तो स्वर अभी...
ए ज़िन्दगी तू यूँ ना गुज़र अभी...
तय करना है लंबा सफर अभी...

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माँ के हजार रूप...

हर इंसान के जीवन में माँ का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है! कुछ लोगों के लिए माँ ही जीवन होती है तो कुछ लोग माँ को भगवान का दर्जा देते हैं...मेरे भी जीवन में मेरी माँ का अहम् स्थान है...जो आतंकवादी दिल्ली में बम ब्लास्ट के आरोप में पकडे गए हैं। वो आतंकवादी हैं या नहीं ये बात पूरेविश्वास से कह पाना जरा मुश्किल है! या तो भगवान जानता है की वो गुनाहगार हैं और या फ़िर वो आतंकवादी ख़ुद...
उन्हीं में से एक आरोपी की माँ का इंटरव्यू टीवी पर देखा और कई जगह पढ़ा भी जिसे पढ़ और देख कर मेरी ऑंखें नम हुए बिना ना रह सकीं।
ऑफिस में इसी को लेकर बात चल रही थी, तो किसी ने मुझसे कहा की माँ तो ऐसी ही होती है, चाहे उसका बेटा कितना भी बुरा हो। वो हमेशा अपने बेटे का ही पक्ष लेती है...
मुझे पता नहीं ये बात क्यों अच्छी नहीं लगी, क्योंकि जहाँ तक में अपनी माँ को जनता हूँ, वो तो बिल्कुल ऐसी नहीं हैं... और आप लोगो को याद होगी फ़िल्म मदर इंडिया! कहने को तो ये सिर्फ़ फ़िल्म है, लेकिन उसमे एक माँ के जज्बातों का नया रूप लोगो के सामने आया था, इसीलिए फ़िल्म ओस्कर तक पहुंची थी...जब मैंने अपने सहकर्मचारियों से कहा की नहीं हर माँ ऐसी नहीं होती, तो वो मेरी बात का मजाक उड़ाने लगे.
दुनिया में बहुत सी ऐसी माँ हैं जो वक्त पढने पर अपने बेटे को भी सजा देने से नहीं चूकेगी।
शायद इसी बात को लोगो को बताने के लिए फ़िल्म मदर इंडिया का निर्माण हुआ था...
मेरी माँ भी किसी मदर इंडिया से कम नहीं है, वो मेरे खाने, पीने, सोने हर छोटी से छोटी चीज का ख्याल रखती हैं, वो मेरी हर बात जानती हैं, मैं कब क्या कर सकता हूँ, कब क्या नहीं, किस चीज से नफरत हैं, किस चीज से प्यार सब कुछ जानती हैं... कई बार में माँ से कुछ छिपा रहा होता था तो वो सच बात बोल देती थी और में मन ही मन हैरान हो जाता था की माँ ने मेरे मन की बात कैसे कह दी...
एक बचपन का वाक्या आपसे बाँटना चाहूँगा। मैं चान्दिनी चौक के दरीबा के एक स्कूल में नर्सरी क्लास में पढता था, बहुत छोटा था. एक दिन स्कूल के किसी बच्चे का जन्मदिन था उसके पापा ने पूरे स्कूल को ज्योमेट्री बॉक्स बांटा। मुझे भी मिला में खुशी फुदकता हुआ घर पहुँचा और माँ को वो बॉक्स दिखाया। देखते ही मेरी माँ पूछती है की कहाँ से लाया? मैंने कहा की सबको मिला है किसी का जन्मदिन था, उसके पापा ने बांटा है...पर माँ को लगा की मैं चोरी कर के ले आया हूँ, उन्होंने कहा सच बता दे... अब उन्हें कौन बताता की मैं सच ही तो कह रहा था। माँ ने मेरी एक नहीं सुनी और मुझे खूब पीटा और कोठरी में बंद कर दिया। कोठरी घर का वो कमरा था जिसमे हम कबाड़ और टूटी-फूटी चीजे रख देते थे। मैं रोते -रोते कहता रहा की माँ मैंने चोरी नहीं की। पर माँ ने मेरी नहीं सुनी। अगली सुबह माँ मुझे और उस ज्योमेट्री को लेकर मेरी क्लास टीचर के पास पहुँची और उनसे बोली की देखो ये मेरा बेटा किसी की ज्योमेट्री उठा ले गया है। तब टीचर ने उन्हें बताया की नहीं ये इसी का है. और टीचर से सच पता चलने के बाद माँ की आँखों में आंसूं आ गए और उन्होंने मुझे गले से लगा लिया...और घंटों प्यार करती रहीं...
खैर जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ मेरी माँ मुझे पूरी तरह जान गई। पर मैं उन्हें आज तक अच्छी तरह जान नहीं पाया हूँ।
अभी इस लेख को लिखने से पहले मैंने माँ को फोन किया ये पूछने के लिए की मैं उस वक्त कौन सी क्लास में था, क्योंकि मुझे ठीक से याद नहीं था... तो माँ ने पूछा की क्यों पूछ रहा है? मैंने कहा ब्लॉग पर डालूँगा तो बोली- पागल और फोन रख दिया....
सच में माँ दुर्गा भी है और काली भी उसके हजार रूप हैं....
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भारत का दामाद, आतंकवाद!










कल राह में मिल गया,
मुझे आतंकवाद!
मैंने पूछा?
क्या हाल है, नेताओं के बाप?
बहुत अरसा हो गया है,
तुमको भारत में आये...
क्यों ना कुछ दिनों के लिए,
कहीं और चला जाये...
आतंकवाद बोला-
अरे नासमझ!
में नेताओं का बाप नहीं,
उनका पति हूँ...
तेरी सरकार है, मेरी रखैल!
और भारत है मेरी ससुराल!
भला अपनी ससुराल को,
कोई ऐसे भी छोड़कर जाता है?
मैं कभी ना जाऊंगा...
तुझ जैसो की छाती पे चढ़कर,
खूब उत्पात मचाउंगा!
कर ले जो कर सकता है!
पर सुन ले की,
भारत की सरकार मुझे
दामाद बनाकर यहाँ लाई थी!
अबतो यहाँ से मेरी अर्थी ही जायेगी...

मेरी गुजारिश है, मेरे ब्लॉग को पढने वाले हर इंसान से आओ! इस आतंकवाद नाम के दामाद को अर्थी पे लिटाकर अपनी सरकार को बेवा कर दें...जबतक हमसब कुछ नहीं करेंगे तबतक ये नेताओं का पति और भारत का दामाद ऐसे ही उत्पात मचायेगा...तो क्यों नहीं हम खुद ही इस उत्पात को रोकें? क्यों आप सब मेरे साथ हैं ना...आतंकवाद की अर्थी उठाने के लिए...

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एक सच ये भी है...

शनिवार की शाम को कनाट प्लेस के सेंट्रल पार्क का मंज़र देख दिल बहुत उदास था, रविवार को ऑफिस की छुट्टी थी। मन घर में नहीं लग रहा था, तो सोचा की थोड़ा बहार टहल आता हूँ। घर के सामने ही मेट्रो स्टेशन है सोचा वहीँ सीढियों पर बैठ जाऊं आते-जाते लोगों को देखूँगा तो शायद मन बहल जाए। पर वहां सन्नाटा पसरा था। आदमी का नामोनिशान ना था। मुझे पता चला की मेट्रो बंद है...
खैर! मैं अपने मुहल्ले की गली के बाहर आकार खड़ा हो गया।
काफी देर तक खड़ा रहा, गली के बाहर बहुत से ठेले-खोमचे वाले खड़े थे। जिनमे मूंगफली, नमकीन, जलेबी और तीन ठेले अंडो के थे। ये तीनो अंडे की रेहडी लगाने वाले हमारी गली में ही रहते हैं।

एक अंडे की रेहडी लिए हमारी गली के दायीं ओर एक ११-१२ साल का लड़का खड़ा था। ये भी हमारी गली में ही रहता है। सुबह स्कूल जाता है, दोपहर को घर का काम और शाम को अपना और शायद अपने परिवार का पेट पालने के लिए लोगो को ओम्लेट बना-बना कर खिलाता है। अबसे कुछ साल पहले उसके पिता की एक गोली खाने के कारन मौत हो गई। सुना था की उसके पापा ने कोई गोली खाई, उन्हें उलटी आयी और बस ज़िन्दगी खत्म।
इससे पहले वो ठेला उसके पापा ही लगाते थे। बम फट जाने की वजह से सड़क बिलकुल सुनसान थी बस इक्का-दुक्का आदमी ही थे.उस लड़के का नाम कालू है. कभी-कभी उसे देखकर ऐसा लगता है की जैसे उसका बचपन किसी अंधकार में समाता चला जा रहा है. खेलने कूदने की उम्र में वो पेन में ओम्लेट को उछालता है...
मैं उसे ओम्लेट बनाते देख रहा था। ना जाने कब उस लड़के की रेहडी पर दो युवक चुपचाप आकर शराब पीने लगे थे, जिसका पता शायद उसे भी ना चला था...थोडी देर बाद ही एक पुलिस वाला वहां आया और सभी से बोला की की चलो भाई रेहडी लेकर चलो...जो दो अंडे की रेहडी वाले थे वो बोले की हमारा तो चालान कट चूका है... पुलिस वाला अपने मुँह को सडाने लगा, जैसे की उसके हाथ में आने वाली लक्ष्मी उसके हाथ से नक़ल गयी हो.उन रेहडी वालो को इंकार कर वो उस लड़के की तरफ बढ़ गया...
वहां उन लड़को शराब पीता देख उसे जैसे मुराद मिल गयी हो...वो उस जरा से बच्चे को गन्दी-गन्दी गलियां देकर जलील करने लगा... और रेहडी अपने साथ लेकर चलने को कहने लगा..लड़का अंकल जी... अंकल जी... मुझे नहीं पता ये लोग कब आकार शराब पीने लगे कहता रहा... लेकिन वो पुलिस वाला बहरा हो चूका था...
तभी तो उसे वो धमाके भी सुनायी ना दिए थे जो एक दिन पहले हुए थे और ना ही सुने दे रही थी उस लड़के की गुहार....
(तस्वीर उसी बच्चे कालू की है)
आगे की बात मैं आपको बताना नहीं चाहता...
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मेरे वतन में कौन आग लगा रहा है...

जहाँ देखता हूँ, दहशत नजर आ रही है। लोग एक डर के साये में जी रहे हैं। परसों की शाम से, देखते ही देखते चंद छुपे हुए चेहरे खुशियों के रंग को चुरा कर ले गए
आज कुछ लिखने का मन नहीं है। दो दिन से बस उदासी छाई है...
समझ नहीं आ रहा है की आखिर हो क्या रहा है...
किसिलिये हो रहा है...
कौन कर रहा है...
क्यों कर रहा है...
उसे आखिर चाहिए क्या...
आखिर वो ऐसा करके साबित क्या करना चाहता है...
मासूमो की जान से खेल कर क्या मिल रहा है उसे...
दिल से बस एक रुलाई निकल रही है...
भारत माँ का आँचल,
उसी के बच्चों के लहू से रंगा जा रहा है...
कौन मेरे वतन में,
आग लगा रहा है...
जिस तरफ देखूं बारूदी फिजा है...
सिसकियों से भरी सारी हवा है...
क्यों खुशिया बदल रही,
मातम में...
क्यों उजाला अँधेरे के,
मुहं में समां रहा है...
कौन मेरे वतन में आग लगा रहा है...

दो दिन से मन बहुत उदास है। आँखों के आगे सेंट्रल पार्क का मंजर घूम रहा है...
बस बहुत हो गया अब सहा नहीं जाता...
इश्वर से दुआ है की वो कुछ करे...

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चलो एक ऐसा गीत लिखा जाए...











चलो एक ऐसा गीत लिखा जाए...
जिसे गाकर हर दिल में प्रेम उमड़ आए...
ना हो धर्म और जात के बंधन,
बस एक ही लहर में हर कोई बहता जाए...
चलो एक ऐसा गीत लिखा जाए...
माँ-बाप का अपने बेटों पे राज हो,
हो कुछ ऐसा के बेटी पे नाज़ हो,
बंजर ज़मीं पे पैदा हो हरियाली,
विधवाओं के मस्तक पर फ़िर से फैले लाली,
मन्दिर में हो अजान,
और मस्जिद में आरती गाई जाये...
चलो
एक ऐसा गीत लिखा जाए...

किसी के दामन में दाग ना हो,
किसी मासूम का जिगर चाक ना हो,
हर तरफ हो प्यार का उजाला,
नफरत की काली रात ना हो,
गरीब के फटे लिबास पे,
अमीर पैबंद लगाये...
चलो एक ऐसा गीत लिखा जाए...
जिसे गाकर हर दिल में प्रेम उमड़ आए...

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सोचा था की आज तुझे ख़त लिखूं...












सोचा है आज तुझे ख़त लिखूं...
बिन तेरे कैसे गुजर रहा है, वो वक्त लिखूं...

आज लिखूं की सुलग रहे अरमानो में,
कैसे ज़हरीले नश्तर चुभ रहे हैं,
गम की काली रात में ये बेबस आंसूं,
थम रहे हैं, थम-थम के बह रहे हैं...
सोचा है आज तुझे ख़त लिखूं...
बिन तेरे कैसे गुजर रहा है, वो वक्त लिखूं...

दिल कर रहा है तुझे भूलने की प्रार्थना
और हम तेरे लौट के आने की दुआ कर रहे हैं,
किस तरह तेरे मेरे अफसाने में,
नाम तेरा लेकर लोग हंस रहे हैं,
बदनाम कर रहे हैं रूह के एहसास को,
तेरी चाहत पे इल्जाम गढ़ रहे हैं,
और हम हैं की बस बुत बने,
बेरहम वक्त की हर चोट सह रहे हैं...
सोचा है आज तुझे ख़त लिखूं...
बिन तेरे कैसे गुजर रहा है, वो वक्त लिखूं...

काश! तू आ जाए तो,
इस जलते हुए दिल को तेरे सीने के तले
ढेर सा आराम मिले,
तेरी बाँहों में सिमट जाऊँ में,
जिस्म के हर एक ज़ज्बात को,
फ़िर से कोई मकाम मिले...
पर...
ये ख़त कौन ले जाएगा तुझ तक...
खो जाएगा ये तो कहीं...
अजनबी राहें हैं, बेनाम सी गलियां हैं,
और तुम ना जाने कहाँ हो?
कौन देगा तुम्हारे आने की ख़बर मुझको...
आह!
सोचा था की आज तुझे ख़त लिखूं...
बिन तेरे कैसे गुजर रहा है, वो वक्त लिखूं...

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चौराहे पे, धरती माँ के गिर्द, एक नंगा बच्चा लेटा है...












तुम रेशम के आंचल में हो,
वो बिन ढांके ही लेटा है,
चौराहे पे, धरती माँ के गिर्द,
एक नंगा बच्चा सोता है...

मैं देख रहा हूँ, तुमको भी!
मैं देख रहा हूँ, उसको भी!
तुम स्वस्थ, सुसज्जित, सुंदर हो,
वो माटी पुता-पुता सा है...
चौराहे पे, धरती माँ के गिर्द,
एक नंगा बच्चा सोता है...

तुम खुशकिस्मत हो, मिली तुम्हें,
माँ की ममता की गर्मी है,
है तार-तार वो कपड़ा भी,
जिसे तन से उसने लपेटा है...
चौराहे पे, धरती माँ के गिर्द,
एक नंगा बच्चा सोता है...

जब रात आयेगी ठिठुरन की,
वो कस लेगा उस कपड़े को,
तुम किट-किट कर पा जाओगे,
अपनी माता के सीने को...
मिलती है माता की बाहें,
तुम्हें सिराहना बनाने को,
वो पत्थर के एक टुकड़े पे,
अपने सर को रख लेता है,
चौराहे पे, धरती माँ के गिर्द,
एक नंगा बच्चा सोता है...
तुम सुख से पलते-बढ़ते हो,
वो तड़प-तड़प दम देता है...
और लोग तब भी यही कहते हैं...
चौराहे पे, धरती माँ के गिर्द,
एक नंगा बच्चा लेटा है...


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वक्त के सलीब पर टंगी है मसीहा सी ज़िन्दगी...

काश मैं एक दीपक होता...
जल जाता अपनी ही आग में
पर अँधेरा तो ना होता...
काश मैं एक कम्बल होता...
ओढ़कर सो लेता मुझे,
कोई न कोई फुटपाथ पे
सर्दी की रात में कोई ठिठुरता ना सोता...
सोचता हूँ...
बन जाऊँ एक जोकर...
दुखता है ये दिल,
जब कोई बच्चा है रोता...
वक्त के सलीब पर टंगी है मसीहा सी ज़िन्दगी...
क्यों नहीं किसी के काम ये आ जाती,
क्यों मेरी जान कोई नहीं लेता...?
ऐ काश के बन जाता
मैं आंसूं ही नयनों का
रिस-रिस के प्राण खोता...
और फ़िर से पैदा होता...
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ज़िन्दगी रंगमंच का नाटक...











ये ज़िन्दगी एक नाटक ही तो है...
रंगमंच का नाटक...
जब कभी कहीं किसी मासूम की किलकारी गूंजी,
समझो पर्दा उठ गया है...और शुरू हो गए हैं उसके जीवन के किरदार...
जो उसे मरते दम तक निभाने हैं।
मरते दम तक यानि पर्दा गिरने तक....
जहाँ पर्दा गिरा, समझो उसकी ज़िन्दगी की शाम हो गई...
रंगमंच का पर्दा तो फट से सरक कर पुरे मंच को ढँक लेता है...
और उसके बाद कलाकार को ढेरो वाहवाही मिलती है, लोग खुश होते हैं...
पर ज़िन्दगी का पर्दा?
ज़िन्दगी का पर्दा तो धीरे-धीरे सरकता है...
किसी को न तो सुनाई पड़ती है, इसके सरकने की सरसराहट और न ही महसूस होती है...
इस बीच ज़िन्दगी न जाने कितने ही किरदारों को जीती है, हंसती है, रोती है, उदास होती है, पाती है और खोती भी है...
मैंने भी बहुत कुछ पाया, बहुत कुछ खोया...
लेकिन क्या खोया और क्या पाया, ये आज तक जान न पाया...
ज़िन्दगी मैं इतने रंग, इतने किरदार देखे की अब और कुछ देखने का मन नहीं करता...
मैं जानता हूँ की मेरी ज़िन्दगी का पर्दा भी धीरे-धीरे सरक रहा है...
एक जरा सी झिरी बची है, जिसमे से अपनों को हंसते-मुस्कुराते देखता हूँ...
लेकिन दिल में डर भी है की न जाने कब पर्दा पूरा सरक जाये और ये झिरी जिसमें से अपनों को खुश होते देख रहा हूँ, दिखने बंद हो जाएँ...
फिर तो केवल अँधेरा ही दिखेगा, अँधेरा...घुप्प अँधेरा...
अपनों को हंसते-मुस्कुराते तो देख रहा हूँ, पर...
रोते-बिलखते न देख... सकूंगा....

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संकटों से न तू भाग














संकटों से न तू भाग,
अपना ले सहने का राग...
स्वर्ण भी होता है तब कुंदन,
जब जलाती है उसे आग।
फूल मसला जाता है,
पर फ़िर से खिल जाता है,
काँटों से घिर कर रहता है,
सारी दुनिया महकता है।

परिंदा घोंसला बनाता है,
जो आंधी में उड़ जाता है,
वो फ़िर से उसे सजाता है,
तूफ़ान जब थम जाता है।
रात की आगोश में देख,
सवेरा भी छिप जाता है,
सूर्य के रथ पे सवार हो,
फ़िर से दिन चढ़ जाता है।
घबराकर मुश्किलों से तू,
अश्रू क्यों बहता है।
तोड़ कर इस बुरे स्वप्न को,
नींद से अब तू जाग,
संकटों से न तू भाग,
अपना ले सहने का राग...
स्वर्ण भी होता है तब कुंदन,

जब जलाती है उसे आग...
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मैं हूँ लड़की...







तुम में और मुझमें क्या है अलग?
क्या है अंतर?
क्यों मिलता है मुझी को गम
और तुमको जश्न?
मेरी ही आँखों में है प्यास
और तुम्हारी आँखें क्यों रहती हैं तृप्त?
हमारी तो जननी भी एक है...
फिर क्यों है? उसकी नज़रों में भी खोट?
क्या वो यह अंतर बताएगी?
नहीं! वो ना बता पायेगी...
यह अंतर तो किसी और ने बनाया है...
शायद उसकी भी जननी ने?
नहीं शायद उसकी भी जननी ने?
या फिर यह अंतर बरसों से चला आ रहा है?
तभी तो...
भरे दरबार में द्रोपदी निर्वस्त्र हुई,
सती भी कोई औरत ही हुई...
मीरा को ही पीना पड़ा ज़हर का प्याला,
और अग्निपरीक्षा भी सीता की हुई...
क्यों बलात्कार भी लड़की का ही होता है,
दहेज़ के लिए भी उसी को जलना होता है?
पैदा हो लड़का तो ढोल बजता है,
लड़की को गर्भ में भी मरना पड़ता है...
अब समझ में आया यह अंतर...
क्यों माँ देखती है मुझे तिरस्कार से,
और तुम्हें प्यार से।
क्योंकि तुम हो लड़के और मैं हूँ लड़की
केवल लड़की...





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कांच का टुकड़ा...













ना बन पाया मैं सितारा,
एक कांच का टुकड़ा बन के रह गया...
चमकना था तेरी आँखों में,
तेरी हथेलियों मैं धंस कर रह गया...
धूल में पड़ा था कहीं मैं,
किसी पांव के इंतज़ार में...
भर के अपनी ओप में,
तूने उठाया मुझे प्यार में...
कर दिया तेरी उँगलियों को घायल,
तेरे खून से रंग कर रह गया...
ना बन पाया मैं सितारा,
एक कांच का टुकड़ा बन के रह गया...
चमक सितारे में होती है,
चमक मुझमें भी थी...
तू कैसे छोड़ देती मुझे,
चाह तेरे दिल में भी थी...
पर क्यों तूने चुना मुझे,
मैं तेरे दिल में चुभ कर रह गया...
ना बन पाया मैं सितारा,
एक कांच का टुकड़ा बन के रह गया...

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मैंने तुमको रुला दिया...












मुस्काते तेरे होंठों से,
क्यों मैंने तब्बसुम चुरा लिया।
हीरे सी तेरी आँखों में,
क्यों दर्द का पानी मिला दिया।
हाँ! मैंने तुमको रुला दिया...
मासूम से तेरे चहरे पे,
बस खुशियाँ नाचा करती थीं।
खुशियों को छीना है तुझसे,
क्यों गम से नाता करा दिया।
हाँ! मैंने तुमको रुला दिया...
कर दिया क्यों मैंने उदास,
एक चंचल, चितवन से मन को।
क्या पूरा करना था वादा,
किस कसम को मैंने निभा दिया।
हाँ! मैंने तुमको रुला दिया...
रोता है मन ये मेरा भी,
रोता सा जग ये लगता है।
मैंने बुझा हँसी की शम्मा को,
आंसुओं का दिया जला दिया।
हाँ! मैंने तुमको रुला दिया...

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

ना उड़ पायेगी ये महक तुम्हारी...













नहीं भूल सकता मैं, उन पलों को!
हिस्सा हैं मेरी जिंदगी का हर वो लम्हा,
जो साथ गुज़ारा है मैंने तुम्हारे...
धूल-धूल हो जायेगी किताब इस दिल की,
पर यादों के फूलों को ना मुरझाने दूंगा मैं!
ताजा रखूँगा मैं इनको...
साथ तुम्हारी खुशबु के,
साथ तुम्हारी महक के!
ना उड़ पायेगी ये महक तुम्हारी...
मेरा प्यार छीन लेगा इसके उड़ने की ताक़त,
तुम्हारी महक जम जायेगी मेरी सांसों में,
अपनी जिंदगी भी तो अब जम गयी है,
ना आगे ही जायेगी, ना पीछे ही आयेगी...
हाँ पर ये कदम अगर तुम्हारी जुदाई से रुक गए?
तो फिर ना चलेंगे!
चलेंगे भी कैसे, किसके लिए..?

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कब कायम होगी शांति???

दो दिन से मन अशांत है। वजह शायद देश भर में फ़ैल रहा आतंक है।
TV पर जब निर्दोष लोगो की लाशें, खून में लिथड़े मासूम बच्चे और हर तरफ़ एक दहशत का माहोल देखता हूँ, तो दिल में एक अजीब सी दहशत जग उठती है, शायद अपनों को खोने की...
दिल काँप उठता है वो दिन याद कर के जब अब से कुछ साल पहले मेरी माँ चांदनी चौक में शोपिंग करने गयीं थी, तो वहां एक ज़बरदस्त बोंब-ब्लास्ट हुआ था, लेकिन में खुशनसीब था की मेरी माँ वहां से दूर थी, भगवान ने मेरी माँ को बचा लिया था, लेकिन वहां भी कितने ही निर्दोष लोग मारे गए थे...
मुझे याद है वो शाम का वक्त जब मैं घर में टीवी देख रहा था, और एक जोरदार धमाके की आवाज़ आई। मैं तुंरत घर से निकल उस ओर भगा जिस तरफ़ से बम की आवाज़ आई थी...क्योंकि मेरी माँ वहीँ गई थी। मैं फोवारे पर पहुँचा वहां छोटे-छोटे बच्चे, औरतें, कितने ही लोगों की लाशें सड़क पर पड़ी थी और लोग चीखते-चिल्लाते इधर से उधर भागते नज़र आ रहे थे। मैं अपनी माँ को तलाशने लगा। कुछ मिनट बाद ही वहां एक और बम फट गया उस बम का मंज़र मेरी आँखों से आज भी जाता नहीं है। सड़क पर पड़ा सामान अपनों को तलाशते लोग उस बम के धमाके मैं सड़क से कई फीट ऊपर उछले और नीचे गिरे।
लोगों का सामान ऊपर से जा रहे बिजली की तारों पर जा कर लटक गए। मेरा शरीर एकदम बेजान सा हो गया था। पुलिस ने आकर घायलों की मदद करनी शुरू की, वक्त पर अम्बुलेंस के न आने से पुलिस की पीसीआर में ही घायलों को गाज़र-मूली की तरह भर कर ले जाया जा रहा था। पुलिस ने एरिया सील कर दिया था। आगे जाने की किसी को इजाज़त नहीं थी। वहां मौत का तांडव देख कर मुझे लगा की मैंने अपनी माँ को खो दिया है...
मैं घंटे भर वहीँ घूमता रहा और फिर अपने आंसूं पोंछते हुए घर पहुंचा, तो माँ घर पर सुरक्षित थी काफी देर तक उनकी गोद में सर रख कर रोता रहा...
पता नहीं उन लोगो को ऐसा करके क्या हासिल होता है। आखिर वो चाहते क्या हैं। क्यों ऐसे करते हैं। इतने सारे मासूम लोगों की जान लेकर कौन सी खुशी मिल जाती है उन्हें। अपनों को खोने का दर्द क्यों नहीं समझते ये लोग आखिर कब इनसे दुनिया को आज़ादी मिलेगी। कब कायम होगी शांति???

मन में इतना ज़हर है इन लोगो के खिलाफ की दिल करता है अगर ये सामने आ जाएँ तो उन पर सारा ज़हर उगल दूं, लेकिन में जनता हूँ की यह लोग हमीं में से कोई है। अगर मेरे सामने भी आ जाये तो मैं पहचान भी ना पाउँगा
मन मैं अभी बहुत कुछ है...

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मुझको भुला देना...

ना मुझको लेके आना, तुम अपने ख्यालों में
ये ही कसम है तुमको, बस इसको निभा देना।
चाहता था रहना बन के, इक याद तेरे दिल में
ना याद मुझको करना, हाँ! मुझको भुला देना...
ताने कसे जो दुनिया, चाहत पे कभी मेरी
तो दर्द अपने दिल का, दिल में ही दबा लेना।
ये ही कसम है तुमको, बस इसको निभा देना...
जो पूछे कोई तुमसे, की क्या था तेरे दिल में
तो धोखा जिंदगी का, तुम मुझको बता देना।
तस्वीर पे तुम मेरी, बस गर्द रहने देना
भूले से कभी उसपे, ऊँगली ना फिरा देना।
जो बात मेरी बिसरी, तुमको कभी रुलाये
आँखों से कभी अपनी, आंसूं ना गिरा देना।
ना याद मुझको करना, हाँ! मुझको भुला देना...
ना तुमसे कुछ है माँगा, ना प्यार ही लिया है
बस आंसुओं को अपने, तुम मेरा बना देना।
जिस पल कहेंगी सांसें, ये लम्हा आखिरी है
तो बूंदें आंसुओं की, तुम मुझ पे गिरा देना।
तेरे आंसुओं को पाकर, मेरी रूह चैन लेगी
मेरे जिस्म को तुम देखो, प्यासा ना सुला देना।
ये ही कसम है तुमको, बस इसको निभा देना...
ना याद मुझको करना, हाँ! मुझको भुला देना...
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खून या पानी...

कल एक माँ को जीने के लिए खून की जरुरत थी... मैंने अपना थोड़ा सा खून उसे दिया भी लेकिन मेरा खून उसकी रगों में जाने से पहले ही भगवान् ने उसे अपने पास बुला लिया... जिस समय डॉक्टरों ने कहा था की अब हम कुछ नहीं कर सकते... तब उसके पति ने बडे उदास चेहरे और आशाविहीन आँखों से मुझे ब्लड देने के लिए शुक्रिया किया था... और कहा था की प्लीज यार मेरी वाइफ के लिए दुआ करना की वो ठीक हो जाये क्योंकि डॉक्टर ने कहा है की इसे चमत्कार ही बचा सकता है...
तब मेने उसे कहा था की ऊपर वाले पर भरोसा रखो चमत्कार जरुर होगा और मेरी बात सुनकर उसके रूखे लबों पर हलकी सी मुस्कान भी आई थी...
जातेजाते मेने उसे कहा था की मैं तुम्हारी पत्नी के लिए दुआ करूँगा वो ठीक हो जाएँगी...
और कल शाम से सोने तक में उसके जीने के लिए प्रार्थना करता रहा, लेकिन मेरी प्रार्थना व्यर्थ ही गयी... कोई चमत्कार नहीं हुआ..
आज सुबह मुझे फोन आया की कल शाम ही वो माँ अपने तीन महीने के बच्चे और पति को छोड़कर चली गयी...
तब से यही सोच रहा हूँ की..

"मेरी रगों में खून नहीं, पानी है!
मेरी प्रार्थना सच्ची नहीं, बेमानी है!
क्यों बह रहा है, ये मुझमें जब किसी के काम नहीं आ सकता,
नफरत है मुझे ख़ुद से, जो मैं किसी की जिंदगी नहीं बचा सकता!"

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अंतर्मन

कल रात मैं अपने ऑफिस से घर के लिए निकला...मैं बस में बैठा था, स्टाप आने में अभी काफी दूरी बाकी थी। मेरा घर पुरानी दिल्ली में है, लेकिन बस अभी लाल किले पर ही थी। तभी मैले-कुचैले कपड़े पहने एक सीधा सा आदमी मेरे पास आकार बैठ गया। शायद बड़ी जल्दी मैं था...उसके गंदे कपड़े उसके पसीने से गीले थे और उससे मुहं से शराब की गंध आ रही थी। उसने मुझसे पुछा की रेलवे स्टेशन कब आयेगा। मैने उसे कोई जवाब नहीं दिया, क्योंकि शायद मुझे उससे घिन सी हो रही थी। उसने ये सवाल कई लोगो से पुछा, पर किसी ने उसे कोई जवाब नहीं दिया। मुझे उस पर झल्लाहट सी हो रही थी, की वो क्यों मेरे पास बैठा है और भी तो सीटें खाली हैं, वहां क्यों नहीं बैठ जाता? जब बस आगे बढ़ी तो उसके गीले कपड़े मुझसे छूने लगे, मुझे और गुस्सा आने लगा। इस दौरान वो लगातार पूछता जा रहा था की स्टेशन कब आयेगा... स्टेशन कब आयेगा? मेरे दिमाग में पता नहीं क्या आया और मैने उसे स्टेशन से बहुत पहले ही कहा की यही स्टेशन है उतर जाओ...और वो जल्दी-जल्दी चलता हुआ बस से उतर गया...
मैं नहीं जनता क्यों? लेकिन जब बस की खिड़की से मैने उसे सड़क पर लंगडाते हुए बड़ी मुश्किल से चलते देखा तो मेरी आँखों में आंसूं आ गए, दिल में बड़ी टीस सी उठने लगी। वो शायद एक फ़कीर था...
पता नहीं क्यों मैने क्यों उसके साथ एसा किया?
शायद उसके गंदे कपड़ों की वजह से या उसके अंदर से आ रही शराब की बू की वजह से ? जबकि शराब तो आज की संस्कृति का हिस्सा बन गई है, अगर मैं किसी कोकटेल पार्टी मैं होता तो क्या मुझे ये शराब की बू नहीं आती? और अगर ऐसा किया भी तो मेरी आँखों से फिर आंसूं क्यों आये ?
इन सवालों का जवाब मैं कल से अपने अंदर तलाश रहा हूँ पर मिल नहीं रहा...

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साईं का संदेश...










मैं मिट्टी के कण-कण में हूँ,
मैं जीवन के क्षण-क्षण में हूँ!
झांके हैं नभ से तारे जो,
उन तारों की टिम-टिम में हूँ!
मैं ही तो हवाओं का वेग हूँ,
मैं ही तो घटाओं का मेघ हूँ!
अहसास करो तुम खुद में ही,
मैं तो हर इक के मन में हूँ!
क्यों फिरता है दर-दर पर तू?
मुझको पाने की चाहत में?
क्यों जलता है पल-पल में तू?
मैं तेरी हर हलचल में हूँ!
कर पलभर तो तू याद मुझे,
ना रहने दूंगा उदास तुझे!
आऊंगा जब पुकारोगे मुझे,
में जन-जन की सुमिरन में हूँ!
मैं मिट्टी के कण-कण में हूँ,
मैं जीवन के क्षण-क्षण में हूँ...



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खो गया बचपन?

क्यों चला जाता है बचपन?
तोड़कर मासूमियत के अनगिनत स्वपन!
क्यों चला जाता है, वो नाना का घुमाना,
रातों को नानी का कहानी सुनाना,
गर्मी की लू से भरी दोपहरी,
याद आते हैं वो पल थे, सुनहरी?
क्यों चले जाते हैं, वो खट्टी-मीठी के पत्ते
वो छोटे-छोटे पाँव और लम्बे से रस्ते,
नीम की डाली पे, टंगा वो झूला,
वो मिट्टी का घरोंदा अभी तक ना भुला?
क्यों खो गयी आखिर वो बकरी की सवारी,
खिड़की के पास की वो कबूतर की अटारी?
हाथों में पिरोये उन धागों का खेल,
बगीचे की मिट्टी में, रामजी की रेल?
कहाँ है? वो बारिश के पानी की छप-छप,
वो सर्दी की रातों में घंटो की गपशप?
कुल्फिवाले की घंटी की टन-टन,
शर्तों में जीते, उन कंचों की खन-खन?
क्यों है दिल में, एक आस अब भी उसकी?
आती बहुत है याद अब भी उसकी!
अब ना मिलेगा वो, सादादिल मौसम,
खो गया है, ना जाने कहाँ मेरा वो बचपन...
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कोई दूर मुझे बुलाता है...

कोई दूर मुझे बुलाता है,
निसदिन अहसास कराता है।
वो जाना सा ही चेहरा है,
पर जाने क्यों धुंधलाता है।
रातों को उंघती निंदिया में,
थप-थप थपिया दे जाता है।
जब सोचूँ में, तब चौकूं में,
वो कोसों ही मुस्काता है।
कोई दूर मुझे बुलाता है...
उलझी सी राहों में अक्सर,
दिल उसको ढूंढा करता है।
वो दूर नदी की लहरों सा,
आता है फिर चला जाता है।
कोई दूर मुझे बुलाता है...
क्यों अलसाई सी सुबह में,
वो किरणों सा बन जाता है।
में छूना उसको चाहता हूँ,
वो मुझको छु कर जाता है।
कोई दूर मुझे बुलाता है...
निसदिन अहसास कराता है।
वो जाना सा ही चेहरा है,
पर जाने क्यों धुंधलाता है।
कोई दूर मुझे बुलाता है...

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

हमसफ़र

मेरी तरह ना जाने कितने ही हैं,
जिन्हें राही नहीं निलते।
तन्हा तय करते हैं वो सफ़र अपना।
और कितने ही मुसाफिर तो ऐसे भी हैं,
जो अपनी ही धुन में बस चले जा रहे हैं, मंजिल की तस्वीर अपनी आँखों में लिए।
वो तो पूछते भी नहीं इन रास्तों से की क्या तुम्हें भी साथ चलना है या नहीं।
ये रास्ता भी कुछ ऐसे लगता है, जैसे की एक बेज़बान माँ, जो अपने आँचल को पसारे साथ-साथ चलती जाती है।
हर सर्द-ओ-गम से लड़ती हुई। चुपचाप!
और चाहती भी नहीं की कोई उसे देखे, कोई उसे सराहे।
वैसे खुशकिस्मत हैं वो लोग जिन्हें रस्ते में कोई साथी मिला है।
जिनको सफ़र में कोई हमसफ़र मिला हो...
चाहे फिर वो हमसफ़र गम ही क्यों न हो...

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मेघ

वो उमड़ घुमड़ के आये हैं,
वो कड़-कड़ करते आये हैं,
भरकर बूंदों की टोकरी,
वो गड़-गड़ करते आये हैं,
बैठ हवा के सिंहासन पर,
वो बिजुरी संग इतराते हैं।
इस सूखी-सूखी सी माटी पे,
गीले से तीर चलाते हैं।
दिखते हैं उनको भी नभ से,
कुछ सूखे से जो साये हैं।
वो उमड़-घुमड़ के आये हैं,
वो कड़-कड़ करते आये।
वो काले हैं, मतवाले हैं,
लगते सागर के प्याले हैं।
इनकी ही चाहत में देखो,
मयूर ने अश्रु बहाए हैं।
वो उमड़ घुमड़ के आये हैं,
वो कड़-कड़ करते आये हैं...

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सुनो सुनो धरा कुछ कह रही है...

सुनो सुनो धरा कुछ कह रही है,

नदियाँ भी कल-कल बह रही हैं।

हवा में ना जाने कौन सी सरगम है,

आंसुओं में है टप-टप, तभी तो आंख नम है।

रात के होंठों पे खामोशी रह रही है,

सुनो सुनो धरा कुछ कह रही है...

पुष्पों ने सुना, षट्पद ने सुना,

झूमते हुए वृक्षों ने सुना।

गीत है कोई, या अपना दर्द कह रही है।

सुनो सुनो धरा कुछ कह रही है...

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कोशिश



रचियता: हरिवंश राय बच्चन

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,

चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।

मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,

चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।

आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,

जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।

मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,

बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।

मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,

क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।

जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,

संघर्श का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।

कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती...

इस कविता को अपने ब्लॉग पर डालने के पीछे मेरा उद्देश्य यही है की मायूस लोगो में विश्वास जागे।

तुम्हारा मीत

आप हरिवंश जी की अन्य कवितायेँ इस लिंक पर पढ़ सकते हैं...

http://hindi.webdunia.com/miscellaneous/literature/harivansh/

कौन हूँ??

इस अजनबी सी दुनिया में,

अकेला इक ख्वाब हूँ।

सवालों से खफ़ा सा, चोट सा जवाब हूँ।

जो ना समझ सके, उसके लिये "कौन"।

जो समझ चुके, उसके लिये किताब हूँ।

दुनिया कि नज़रों में, जाने क्युं चुभा सा।

सबसे नशीली और बदनाम शराब हूँ।

सर उठा के देखो, वो तुमको भी तो देखता है।

जिसको न देखा उसने, वो चमकता आफ़ताब हूँ।

आँखों से देखोगे, तो खुश मुझे पाओगे।

दिल से पूछोगे, तो दर्द का सैलाब हूँ...

इस अजनबी दुनिया में,

अकेला सा इक ख्वाब हूँ।

मेरे दोस्त

दोस्त तो ऐसे ही होते हैं...
जो कभी हंसाते हैं, कभी रुलाते हैं...
पहली बार मिलते हैं, और मुस्कुराते हैं
फिर कुछ ही पल में एक हो जाते हैं।
साथ रहते हैं, पीते हैं, खाते हैं
जरा सी बात पर घंटो कह्कहाते हैं।
कभी रूठ जातें हैं,
छोटी-छोटी बातों पर,
और कभी एकदूसरे को थोड़ा-थोड़ा सताते हैं।
खुशियाँ बांटते हैं
आपस में सारी,
हो अगर गम तो,
उसे छुपाते हैं।
हाँ दोस्त तो ऐसे ही होते हैं...
कभी हंसाते है, कभी रुलाते हैं...
बुरे वक्त में बनते हैं,
एकदूसरे का सहारा
हर हाल में साथ निभाते हैं।
हाँ दोस्त तो ऐसे ही होते हैं...
कभी रुलाते हैं, कभी हंसाते हैं...
एक की ऑंखें छलक जाएं तो
सारे ही आंसू बहाते हैं...
फिर एकदूसरे को पागल कहकर
गम में भी सब मुस्कुराते हैं...
हाँ दोस्त तो ऐसे ही होते हैं...
कभी हंसाते हैं, कभी रुलाते हैं...

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तुम्हारी आंखें

तुम्हारी आंखें!

कभी मेरे चेहरे के आस-पास

सरगोशियाँ करती हैं...

कभी आधी रात को ख्वाबों में

मेरी अंखियों से अठखेलियाँ करती हैं...

तुम्हारी आंखें!

गिरती है जब बारिश कभी मेरे तन पर

इन्हीं से निकली आंसुओं की बूंद सी लगती है...

सूख जाती है बारिश तो बरसने के बाद,

पर तुम्हारी आँखों में क्यों मुझे नमी सी लगती है...

तुम्हारी आंखें!

कुछ तो कहानी है इनमें,

जो मेरे कानो पे ये सुबकती हैं...

बोलती तो कुछ नहीं हैं पर,

एकटक मुझी को तकती हैं...

क्या करूँ में इनका, मेरी ज़िंदगी सालों से सोयी नहीं है?

तुम्हारी पथराई आँखों को देख मेरी आंख भी कब से रोई नहीं है...

वापस आ जाओ तुम कहाँ चली गई हो?

साथ अपने मेरी हँसी ले गई हो...

अपने होंठों के तले तुम्हारी आँखों को,

ढेर सा आराम दूंगा...

तुम्हारी आँखों में देखकर,

बाकि ज़िंदगी भी गुजार दूंगा...

तडपता है दिल जब ये,

मेरा पीछा करती हैं...

मुड़कर देखता हूँ तो,

छलका करती हैं...

अब सहन नहीं होता,

मुझे अपनी आँखों से मिला दो...

जहाँ तुम छुप गई हो...

मुझे भी छुपा दो....

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नयी सुबह

साँझ ढलने लगी है....
दिन के तपते हुए सूरज को,
रात धीरे-धीरे अपनी आगोश में ले रही है...
देखो न! सूरज का ये सिन्दूरी रंग दिल को कितना सकून पहुंचा रहा है...
माँ कहती हैं जब कभी तुम थक जाओ, तो ढलते हुए सूरज के सामने खड़े हो जाओ।
कितनी भी थकन हो उतर जायेगी...
मुझे ढलता सूरज देखना बहुत पसंद है।
कहने को तो ये सूरज ढल रहा है, लेकिन सिर्फ यहीं पर...
ये सूरज बेशक यहाँ ढल रहा है, लेकिन कहीं और यही सूरज उगने के लिए तैयार है
तैयार है एक नया सवेरा, एक नयी सुबह, एक नया दिन लाने को...
दूर क्षितिज पर ऐसे लगता है की जैसे सूरज धरती की गोद में समाता जा रहा है...
दुनिया कहती है की सूरज डूब रहा है, लेकिन इस बात से सब अंजान हैं की...
सूरज कभी नहीं डूबता।
क्योंकि उसका काम है बस रोशनी करना...
वो यहाँ डूबेगा, लेकिन कहीं और उदय होगा... क्योंकि उसे लानी ही है एक नयी सुबह...

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